पहाड़ पर भी
बसंत ने दी है दस्तक
बान के सदाबहार जंगल में
कविता की एक रसता को तोड़ते-से
बरूस के पेड़ों पर
आकंठ खिले हैं लाल फूल
सरसों के फूल
बसंत में जहाँ
खेत के कोने की छान को
झुलाते होंगे धीरे-धीरे
यहाँ बरूस के लाल रंग ने
आलोड़ित किया है पृथ्वी को
बादल बच्चों की तरह
उचक-उचक देखते बसंत खेल
डाली-डाली पर उम्मीदों-से
भरे हैं फूलों के गुच्छे
हर फूल में ढेरों बिगुल-से झुमकों से
करते बासंती सपनों का उद्घोष
सेमल, शाल, पलाश, गुलमोहर को पीछे छोड़
बरूस की लाल मशाल
रंग गई बादलों को भी आक्षितिज
बरूस ने बच्चों के हाथों घर-घर भेजा है
उत्सव का आवाहन
जीर्ण-शीर्ष घरों को
बरूस की बंदनवार रस्सियों ने
बाहों में भर लिया है
बसंत ऋतु के बाद
निदाघ दिनों में भी
बंदनवार में टँगे सूखे फूलों को मसलकर
एक चुटकी लेते
सारी ऋतुओं का रस
टपक पड़ता है जीवन में