फिर बसंती पवन ने
भर दी नसों में आग।संधि ऋतुओं की हृदय में
उलीचे संगीत,
कौन ऐसा बावरा जो
रच न डाले गीत।
प्रकृति की हर चेष्टा में
मचलता अनुराग।
दूर तक फैले हुए पट
धरा पर पीताभ,
बिना भय-बाधा सिलीमुख
कर रहे मधु लाभ।
पुलकती बागों में कोयल
मुँडेरों पर काग।
मदन मधु प्याला लिए
है घूमता स्वच्छंद,
कहीं कुंजों में अधर से
रचे जाते छंद।
अमिट रंगों से संयोगी
हृदय खेलें फाग।
९ फरवरी २००९ |