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प्रत्यंचा टूट गई
छूट गए फूलों के वाण
ऋतुओं के गंध कलश छलक गए
रेशमी हवाओं की
रस्सियाँ भाँजता
बटरोही वसंत
वन-बगीचों में झाँकता
कोयल के पैने संधान
अंध कूप में गहरे सरक गए
शहज़ादे सलीम-सा
बौराया आम
मेंहदी हसन-सी
ग़ज़ल पढ़ती है शाम
पहाड़ों पर नदी के पैतान
गुलमोहर निगाहों में करक गए
जंगल ने ओढ़ ली
खुशबू की चादर
धरती ने लगा ली
जैसे महावर
रंगों के तन गए वितान
गीत-क्षण शीशे-सा दरक गए
1 मार्च 2007
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