1
संध्या के चेहरे पर
फागुन ने रच दिया गुलाल।
पीले वस्त्र पहनकर आई
वैरागिन सरसों
आम और महुआ बौराये
लगते हैं बरसों
रंग-बिरंगे बिंब उभरते
झाँक रहा है ताल।खेल रहा ले पिचकारी
सूरज आँगन आँगन
फैल रही खुशबू
खेतों में बाग़ों में वन-वन
स्नेह-नदी में मौन मछलियाँ
काट रही हैं जाल।
खिड़की से मालती झाँकती
द्वार हँसे बेला
पनघट-पनघट भीग रहा है
चंद्रमुखी मेला।
घूँघट शरमाया कान्हा ने
चूम लिया क्यों भाल?
1 मार्च 2007
|