फागुन में देहरी हुआ पाहुन है रसराज
गंध रंगीली उड़ रही फिर साँसों पर आज।
सात रंग की देह लग रही इतना उड़ा गुलाल
नील हरित नदिया हुई झील बन गई लाल।
पीत रंग सरसों खिली पीले खिले गुलाब
केसरिया रंग धूप हो गई टेसू चढ़ा शबाब।
हुई जुगलबंदी सुघर बजते बाजूबंद
कंठ-कंठ गुंजित हुए पद्माकर के छंद।
एक एक मुस्कान पर आज बिरिज के द्वार
कुंकुम और अबीर संग बरसे रस की धार।
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