शब्दों के सफ़ेद पाखियों की कतारें
जाने कहाँ से चली आती हैं
मन के अरण्य में
जहाँ कोई आतुरता नहीं
किसी का इंतज़ार नहीं।
एकाकीपन के घनीभूत क्षणों में
ये सफ़ेद पाखी स्वत: तब्दील हो जाते हैं
पीली तितलियों में
जो पता नहीं किस गंध का अनुमान करती
तिरने लगती हैं वातावरण में।
शब्दों का यह इन्द्रजाल
केवल देखा जा सकता है
या अनुभव किया जा सकता है
बिना किसी अर्थवत्ता के
इन अराजक शब्दों को
कोई अर्थवान बनाए भी तो कैसे?
पाखियों को पकड़ पाने की कला
बहेलिए जानते तो हैं
लेकिन पाखियों को
परतंत्र बनाने की जुगत में
वे उन्हें मार ही डालते हैं वस्तुत:
कभी किसी ने परतंत्र पाखी को
उन्मुक्त स्वर में गाते देखा है भला?
अलबत्ता तितलियों को तो
नादान बच्चे भी पकड़ लिया करते हैं
पर तितलियाँ तो
तितलियाँ ही होती हैं अन्तत:।
उन्हें किसी ने स्पर्श भर किया
और उनके रंग हुए तिरोहित
पंख क्षत विक्षत।
एक बार पकड़ी गई तितली
फिर कभी उड़ पाई है क्या?
एक न एक दिन
शब्दों के ये सफ़ेद पाखी
अवश्य गाएँगे एक ऐसा गीत
जिससे आलोकित हो उठेगा
मन के अरण्य में बिखरा
घटाटोप अंधकार
अपनी सम्पूर्ण हरीतिमा के साथ।
शब्दों के पाखियों को
मन के बियाबान के अनंत में
यों ही उड़ान भरने दो
पीली तितलियों का यह खेल
बस देखते रहो
जब तक देख सकते हो
निशब्द निस्तब्ध
९ फरवरी २००९ |