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काँधे तक कंबल सरका कर, सर-से सर्दी भागी
तब थोड़ी-सी राहत आई जब बसंत ऋतु जागी
सूरज करने लगा ठिठोली, लगा ठहरने ज़्यादा
चंदा घर जल्दी जाने की, लांघ रहा मर्यादा
तारों ने भी शुक्र मनाया, घटी जो पहरेदारी
खींचा-तानी में दिन जीता, रात बेचारी हारी
पीले-पीले फूल खिले, सरसों ने ली अंगड़ाई
हल-चल भई बाग के भीतर, अमवा भी बौराई
फागुन खड़ा द्वार के बाहर, राग मल्हार अलापे
कोयल पपिहा बेर-बेर, घर आँगन, झाँके-ताके
गोरी का मनवा अति हर्षित, मन ही मन मुसकाए
जो घर साँवरिया आ जाए, मन मुराद मिल जाए
कहे आज़मी मैं भी अपने दिल का हाल सुनाऊँ
जो बसंत पर पिय माने तो, पीहर तक हो आऊँ
११ फरवरी २००८
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