सूख चुके,
अपेक्षाओं के पुष्प,
झड़ चुके,
आशाओं के तृण,
इच्छाओं के डण्ठल पर,
नहीं कोई अंकुर।
बोलो! बसन्त तुम कब आओगे?
ओह!
होगा भी क्या उससे?
आश्वासनों से लदे-फदे तो,
आओगे,पर क्या?
खिला सकोगे,
ऐसे सुरभित पुष्पों को,
जो हर मन को कर सके मुग्ध?
ऐसे हरियाले पत्तों को जो,
बिना झरे, कर सके,
ग्रीष्म की प्रचण्ड,
लू से द्वन्द्व?
उन कोंपलों को,
जो तपती धूप की,
तपन में भी,
पनप सके।
जानती हूँ,
ऐसा नहीं कर सकोगे तुम।
तुम्हारे,
तनिक मुँह फेरते ही-
क्रोधी ग्रीष्म,
आ धमकेगा
और
पनपने नहीं देगा इन्हें।
नटखट वर्षा,
आनन्दित होती रहेगी,
इन मासूमों पर नर्तन कर।
स्वार्थी शिशिर,
जताने को,
अपना अस्तित्व,
ठिठुरा देगा इन्हें।
और-
बेशर्म पतझर,
छितरा देगा इनके,
व्यक्तित्व के अस्तित्व को,
अपनी संतुष्टि के लिए,
कर देगा नग्न,
इन मूक लताओं को।
फ़िर-
हर वर्ष की भाँति तुम
चले आओगे,
झूठे आश्वासनों और
खण्डित वायदों का,
पोटला लिए।
जाग उठेगी जिससे,
अभावों के मरूथल में,
भटकती मृगी के हृदय में,
कुछ पाने की तृष्णा।
नहीं कुछ होने से तो,
कुछ होना अच्छा है,
इसीलिए—
पूछती हूँ तुमसे,
कि बोलो बसन्त!
तुम कब आओगे?
1 मार्च 2007
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