वसंती हवा

बसंत
दिव्या माथुर

 

स्वर्णिम धूप हरा मैदान
पीली सरसों हुई जवान
चुस्त हुआ रंगों में नहा
लो देखो वयस्क हुआ उद्यान

झील में हैं कुछ श्वेत कमल
या बादल नभ पर रहे टहल
मृदुगान से कोयल के मोहित
हैं नाच रहे मोरों के दल

यों पवन की छेड़ाछाड़ी से
उद्विग्न हैं कलियाँ
फूलों का पा संरक्षण
निश्चिंत हैं कलियाँ

फूलों से चहुँ ओर घिरे
भौंरे जैसे मदपान किए
ख़याल तेरा भी भंग पिए
आया बसंत को संग लिए

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter