वसंती हवा

बादल लिए गुलाल
शिवनारायण सिंह

 

 

गुलमोहर-सी बन गई, कंचन जैसी देह।
फागुन में अपना लगे औरों का भी गेह।

कंकण सोने के बजे बजते ढोल मंजीर।
मीठे-मीठे लग रहे व्यंग्य भरे सब तीर।

हरियाले से हो गए स्मृतियों के गाँव।
नयनों में बस बस रहे मेंहदी वाले पाँव।

धू-धू करती जल रही होली की रे आग।
तन मन का कोई नहीं क्या खेलेगा फाग?

अंबर तक उड़ने लगे बादल लिए गुलाल।
तितली-तितली हो गए गोरी के हा गाल।

इंद्रधनुष छितरा रहे पिचकारी के रंग।
गत आगत विस्मृत हुआ ऐसी चढ़ गई भंग।

शब्द-शब्द हैं लग रहे जैसे सुंदर छंद।
कौन करेगा पान हा अधरों का मकरंद।

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter