| अनुभूति में
                    विजय कुमार सुखवानी की रचनाएँ-- नई रचनाएँ-उम्र भर
 गुंजाइश रहती है
 अंजुमन में-ख़ास हो कर भी
 ज़ख्म तो भर जाते हैं
 तेरी बातें तेरा फ़साना
 मेरी मेहनतों का फल दे
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                    उम्र भर
 उम्र भर ज़िंदगी की यही अदा रही
 हम तो बावफ़ा रहे वो बेवफ़ा रही
 
 दुश्मनों के साथ तो सारा जहान था
 साथ अपने बस बुजुर्गों की दुआ रही
 
 जिंदा रहे हम जिंदादिली के दम पर
 जिंद़गी तो हमसे हरदम ख़फ़ा रही
 
 उनकी नज़र में बस उनकी मंज़िलें
 अपनी निगाह में सारी दुनिया रही
 
 फ़ासले मिट भी जाते मगर दरमियाँ
 कभी अपनी कभी उनकी अना रही
 
 कब माँगे हमने सूरज चांद सितारे
 थोड़ी सी रोशनी की इल्तिजा रही
 
 शजर के फल औरों की किस्मत थे
 शाख़ बेचारी तन्हा थी तन्हा रही
 
 सुबह शाम रोजी रोटी की भागदौड़
 जुदा इससे ज़िंदगी भी क्या रही
 
 २९ सितंबर २००८
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