इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर
        इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर 
        कि धरती पराई लगने लगे,
        इनती खुशियाँ भी न देना,
        दुःख पर किसी के हँसी आने लगे।
        नहीं चाहिए ऐसी शक्ति 
        जिसका निर्बल पर उपयोग करूँ,
        नहीं चाहिए ऐसा भाव 
        किसी को देख जल-जल मरूँ।
        ऐसा ज्ञान मुझे न देना 
        अभिमान जिसका होने लगे,
        ऐसी चतुराई भी न देना 
        लोगों को जो छलने लगे।
        इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर 
        कि धरती पराई लगने लगे।
        इतनी भाषाएँ मुझे न सिखाओ 
        मातृभाषा भूल जाऊँ,
        ऐसा नाम कभी न देना कि 
        पंकज कौन है भूल जाऊँ।
        इतनी प्रसिद्धि न देना मुझको 
        लोग पराये लगने लगे,
        ऐसी माया कभी न देना 
        अंतरचक्षु भ्रमित होने लगे।
        इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर 
        कि धरती पराई लगने लगे।
        ऐसा भगवन कभी न हो 
        मेरा कोई प्रतिद्वंदी हो,
        न मैं कभी प्रतिद्वंदी बनूँ, 
        न हार हो न जीत हो।
        ऐसा भूल से भी न हो, 
        परिणाम की इच्छा होने लगे,
        कर्म सिर्फ़ करता रहूँ पर 
        कर्ता का भाव न आने लगे।
        इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि 
        धरती पराई लगने लगे।
        ज्ञानी रावण को नमन, 
        शक्तिशाली रावण को नमन,
        तपस्वी रावण को स्वीकारू, 
        प्रतिभाशाली रावण को स्वीकारू।
        पर ज्ञान-शक्ति की मूरत पर, 
        अभिमान का लेपन न हो,
        स्वांग का भगवा न हो, 
        द्वेष की आँधी न हो, भ्रम का छाया न हो,
        रावण स्वयं का शत्रु बना, जब अभिमान जागने लगे।
        इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे। 
        ७ दिसंबर २००९
         
        इन्सान खुद को शीशे में 
        देख दंग है
        मन है बिलकुल बेरंग फिर भी दिखाने को 
        हज़ारों रंग हैं।
        हृदय से किसी का मिलाप नहीं 
        पर दिखाने को सबों के संग हैं।
        रूप ज्ञान शक्ति धन न जाने 
        किन-किन बातों का घमंड है।
        धरती आसमान हवा ही नहीं 
        इन्सान खुद को शीशे में देख दंग है।
        खुद को खंगालना तो दूर 
        गलतियों पर गलतियाँ करते हैं,
        दोष हज़ार खुद में क्यों न हो, औरों पर आरोप मढ़ते हैं।
        कोई हिम्मत कर खुद से तो पूछे, 
        अपनी ही गलतियों पर दुनिया से क्यों रंज है।
        धरती आसमान हवा ही नहीं 
        इन्सान खुद को शीशे में देख दंग है।
        खुद को जागता कहने वालों, 
        भीड़ में भागता कहने वालों,
        थम कर तो देखो, पीछे मुड़ कर तो देखो, 
        गिरते हुओं को सम्भाल कर तो देखो,
        भूल गए वह सीढ़ी जिसपर चढ़ तुम आए हो,
        भूल गए वह पीढ़ी जिनसे पल-बढ़ तुम आए हो,
        दो पल ज़रा विचार कर तो देखो,
        यहाँ तो अपनी ही बुनियादों के संग छिड़ी जंग है।
        धरती आसमान हवा ही नहीं इ
        न्सान खुद को शीशे में देख दंग है।
        खुद को हारता समझने वालों, 
        व्यर्थ का क्रन्दन करने वालों,
        आशाओं इच्छाओं को मार कर तो देखो, 
        खुद भर में ही सिमट कर तो देखो,
        हार-जीत को एक समझ कर तो देखो,
        सुख-दुःख में एक सम रह कर तो देखो।
        प्रतिस्पर्धा की होड़ में, और-और की शोर में,
        लोग अपनी ही इच्छाओं से तंग हैं।
        धरती आसमान हवा ही नहीं 
        इन्सान खुद को शीशे में देख दंग है।
        ढोंग का भगवा पहनने वालों, 
        खुद को ब्राह्मण कहने वालों,
        जरा ब्राह्मणों की परिभाषा निहारो, 
        फिर अपने आचरण पर विचारो,
        क्या तुम वही हो जिसे ब्राह्मण कहते हैं?
        तुम वो नहीं हो जिसे ब्राह्मण कहते हैं।
        कहते हैं सतयुग में सभी थे ब्राह्मण,
        पर आज तो एक ढूँढ़ लेना ही अचम्भ है।
        धरती आसमान हवा ही नहीं 
        इन्सान खुद को शीशे में देख दंग है।
        यह कैसा प्रकाश जो राह दिखलाता नहीं,
        यह कैसा प्रभात जब सूर्य उदित होता नहीं,
        यह गुरु कैसा जिसे दक्षिणा की भूख है,
        यह शिष्य कैसा जिसे गुरु का आदर नहीं,
        वह ज्ञानी कैसा जिसे ज्ञान का अभिमान है,
        वह ज्ञानी वैसा जो रावण के समान है,
        ज्ञानी रावण के मन में फिर से,
        अभिमान की कैसी यह उठी उमंग है।
        धरती आसमान हवा ही नहीं 
        इन्सान खुद को शीशे में देख दंग है। 
        ७ दिसंबर २००९
         
        कर्म का संकल्प लो 
        
        ज्ञान के प्रकाश में, सत्य की राह पर,
        धर्म की ध्वजा लिए कर्म का संकल्प लो।
        जीवन के संग्राम में, इच्छाओं का दाह कर,
        दृढ़ता का ढाल लिए कर्म का संकल्प लो।।
        काम-क्रोध ग्रास कर इन्द्रियों का दमन 
        करो,
        भय का विनाश कर अभय का विकल्प लो।
        कर्म पर अधिकार तेरा परिणाम पर क्षण भर नहीं,
        कर्मफल इच्छा बिना कर्म का संकल्प लो।।
        रुको न तुम, थको न तुम, राह से भटको न 
        तुम,
        अपने अडिग विश्वास से एक राह का संकल्प लो।
        ज्ञान से झुके रहो, विश्वास से डटे रहो,
        जीवन साकार जो करे, उस ज्ञान का संकल्प लो।।
        ७ दिसंबर २००९
         
        दो जर्जर बाँसों की सीढ़ी
        दो बाँसों की बनी है यह सीढ़ी,
        क्या है? तोड़ डालो।
        अच्छी ख़ासी ऊँचाई तक पहुँच ही गए हो
        और वापस जाने का विचार तक नही लाना है मन में।
        व्यर्थ ही इस सीढ़ी को देखकर बार-बार तुम
        संकोच करोगे आगे बढ़ने से,
        ऊपर देखोगे नज़रें झुकाकर,
        जयघोष कर भी पराजित समझोगे।
        उनकी टकटकी लगाती निगाहों को देख व्यर्थ ही,
        तुम्हे बार-बार अपने बचपन में जाना होगा,
        जहाँ तम्हें चलने से ज़्यादा गिरने की आदत 
        थी,
        और दो हरे भरे चेहरे तुम्हें चलने को प्रेरित करते थे।
        खाने से ज़्यादा भूखे रहने में मज़ा आता था,
        बिना उद्देश्य के बस खेलना पसंद था,
        पर उन दो चेहरों को इनसे शायद इर्ष्या होती थी,
        तम्हारे भूख से, चाहते नहीं थे की तुम क्षुधा का स्वाद तक भी लो,
        तम्हारे निर्लक्ष्य जीवन तक को 
        उन्होंने बरबाद कर दिया।
        अरे छोड़ो इन बातों को, आगे देखो!
        देखो कोई तुमसे पहले अगली मंज़िल तक न जा पहुँचे,
        तोड़ दो इस पुरानी सीढ़ी को व्यर्थ ही अपना समय बर्बाद कर रहे हो।
        काम नहीं आने वाली यह सीढ़ी अब तुम्हारे।
        न हीं इनकी हड्डियों में वो बल रहा 
        कि तुम्हे सहारा दे सके,
        तम्हें और ऊपर उठा सके अगली मंज़िल तक।
        इनका भार अब तुम्हे न उठाना पड़े,
        देखो भाग चलो!
        भूल कर भी अब इनका सहारा मत लेना,
        ख़ुद तो इन्हे टूटना ही है, कहीं तुम्हे न गिरा दें।
        आगे बढ़ो! ऊपर चढ़ो ऊपर!
        मत देखो नीचे इन जर्जर बाँसों को।
        ज़रा भी न विचारो इन्हें!
        तुम निकले हो विश्व जीतने,
        देखो बँध न जाए तुम्हारे पैरों से ये
        उड़ न पाओगे तुम कभी,
        पिछड़ जाओगे भीड़ में,
        खो एक जैसी शक्लों की भीड़ में,
        पहचानेगा नही कोई तुम्हे,
        इन दो बूढे बाँसों के सिवा।
        अरे! देखो...ये क्या?
        तुमसे पीछे चलने वाले आगे जा रहे हैं,
        विलम्ब न करो मिटा दो अस्तित्व इनका।
        क्या सोचते हो?
        छोड़ दोगे इन्हे अपनी हाल पर?
        बादल गरज रहे हैं, वर्षा के जल से फूल जाएँगे,
        फ़िर क्या धूप भी है न... इन्हे सुखा देगी।
        और ये अकेले तो नहीं 
        एक दूसरे की देखभाल कर सकते हैं।
        एक टूटेगा तो भी क्या?
        इनके पायदान के जोड़ इतने तो मज़बूत है कि
        यह सीढी न टूटेगी ! यह पीढी न टूटेगी !
        टूट जाए सारे बंधन, यह बंधन न टूटेगा।
        बहुत ढीठ हैं जानता हूँ।
        हाँ, दोनों टूट जाएँ तब की बात दूसरी है।
        पर यह तो होना ही है न?
        परे रहने देता हूँ इन्हे यहीं।
        न! न! न! ऐसी भूल न कर!
        निकल न पाएगा इस भँवर से तू।
        कभी तो सोने जाओगे,
        सोने नहीं देंगी तुम्हें ये सजल आँखें,
        इन्हीं रास्तों पर
        नभ को चादर मान परे रहेंगे,
        राह देखते एक कर्मनिष्ठ की।
        किचरों में सने करते रहेंगे विनतियाँ,
        पंक को न चाहिए कुछ अपने इष्टदेव से,
        बस इतनी ही कृपा हम माँगते त्रिदेव से,
        शौर्य दे इतना उसे, पूर्ण हो मनोकामना!
        हम राह देख हैं रहे, अपने श्रवण कुमार की।
        ...पर तुम्हारे कामनाओं की भी कोई सीमा है?
        ७ दिसंबर २००९