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अनुभूति में डॉ. शैलेश गुप्त वीर की रचनाएँ-

अंजुमन में-
उम्र मेरी कटी है
ज़ख़्म पर ज़ख़्म
झूठ गर बेनक़ाब
बात बात में
मन भीतर
मन में बोझ
महँगाई की मार

छंदमुक्त में-
आठ छोटी कविताएँ

संकलन में-
धूप के पाँव- गर्मी - दस क्षणिकाएँ
नया साल- साल पुराना
         नये वर्ष की कामना

अशोक- जीवन रहे अशोक
देवदारु- देवदारु - दस क्षणिकाएँ
संक्रांति- संस्कृति देती गर्व
शिरीष- शिरीष दस क्षणिकाएँ
होली है- राग रंग का पर्व‎

 

आठ छोटी कविताएँ

१- अवसान के निकट

अवसान के निकट
सिमटा मानव
दुबक जाता है
मासूम पिल्ले की तरह
नहीं सूझता कुछ
सिवाय इसके
कि कर सकता था वह
और बेहतर!

२- हर मुलाक़ात के बाद

तुमसे/हर मुलाक़ात के बाद
मुझे/आभास होता रहा है
कि देह की भट्टी में
मैं तल रहा हूँ
ज़िन्दगी
अपने ही
तप्त रक्त से
लबालब
कड़ाही में!

३- समायोजन

उस दिन
लुप्त हो जायेगा मानव
बच सकेंगे तो
रक्त-पिपासु
यानी नरपिशाच
सत्य साबित होगा
डार्विन
और
उसका
‘प्रकृति एवं परिस्थिति से
समायोजन का सिद्धान्त।

४- जमीर

उनकी मानसिकता स्वतंत्र थी
जमीर पाकसाफ था
तथापि
ताउम्र बँधे रहे
गु़लामी की जंजीरों में
और हम? जन्मतः स्वतंत्र हैं
तथापि
जमीर बेचकर ढो रहे हैं
गु़लाम मानसिकता।

५-खेल

दबाव में
झूमता मन/झूलती आत्मा
देख रहे हैं दर्पण में अपना-अपना बिम्ब
आत्मा उल्लसित है
समझ चुकी है-
खेल अब ख़त्म हुआ।
मन भी उल्लसित है
उसे लगता है-
खेल अभी जारी है।

६-विलुप्त

उस समय
भूलोक में असीम संभावनायें थीं।
मनुज के समक्ष
खुली थीं सभी राहें।
असंख्य अतृप्त इच्छाओं के मध्य
मानव शेष रहा
मानवता विलुप्त हो गयी!

७- समझदारी

समझदारी/समय सापेक्ष होती है
और स्थान सापेक्ष भी
अब/समय और स्थान
तब्दील हो गये हैं/पैसे में!

८- अर्थी

काजल की कोठरी/भयानक दैत्य
काँपती रूह
अपनी अर्थी अपने ही सामने......
नहीं सूझता कुछ भी
कँपकँपा जाती है
देह से चिपटी
तिलमिलाती आत्मा!

२३ जून २०१४

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