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रस्मी प्रणाम
से
ऊब गया है मन रस्मी प्रमाम से
सच को झुठलाते इस
तामझाम से
भूल गए
हों जैसे खुलकर जीना
मुस्कानों से छिपकर आँसू पीना
शिकवे दोहराते हैं सुबह
शाम से
रिश्तों में
गर्माहट है नहीं कहीं
शर्तों पर जीवन की गाड़ी घिसट रही
लगते संबंध सभी
बेलगाम से
अक्सर
असमय झरते हैं गुलाब से
फटफटकर पृष्ठ उड़े ज्यों किताब से
कोशिश है मगर दिखें
पूर्ण काम से
८ अप्रैल २०१३
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