अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में डॉ. किशोर काबरा की रचनाएँ-

गीतों में-
धूमिल साँझ

बरगद में उलझ गया काँव
यादों की गंध
सुबह के हाथ अपनी शाम
 

  धूमिल साँझ

मैंने तो सोचा था - चलकर पा लूँगा मंज़िल की सीमा
इतनी लंबी राह कि थक कर चूर हो गया चलते-चलते।

अपनी गली भली लगती थी
और भले थे सब नर-नारी
लेकिन चौराहे पर देखा - कई पंथ थे, कई पुजारी।
जिस से पूछो, वही बताता
जीवन की नूतन परिभाषा
शब्दों की छाया में जैसे-तैसे सारी उम्र गुज़ारी।
मैंने तो सोचा था जलकर
पा लूँगा सूरज की किरणें,
इतनी काली रात कि जग से दूर हो गया जलते-जलते।

कितनी बूढ़ी साथ हमारी,
किंतु साधना बीते पल की।
नन्हीं चोंच डुबाकर लेत थाह महासागर के जल की।
मरघट के सिरहाने बैठे
स्वप्न देखते हैं पनघट के।
वर्षों का सामान जमा है, लेकिन ख़बर नहीं है पल की।
मैंने तो सोचा-गलकर
पा लूँगा निर्झर का आँचल,
इतनी निष्ठुर धार की मैं भी क्रूर हो गया गलते-गलते।

उठा बाल सूरज-सा मेरा,
हाथ पूर्व के स्वर्ण शिखर से।
केसर से घुल गया अंधेरा, कंकर-कंकर गए निखर-से।
लेकिन संध्या ने मुसका कर
कहा कान में कुछ पश्चिम के
टूट गए सब इंद्रधनुष तरकस के शर सब गए बिखर-से।
मैंने तो सोचा था - ढलकर
पा लूँगा विश्राम ज़रा-सा
इतनी धूमिल साँझ कि मैं भी धूल हो गया ढलते-ढलते।

९ जून २००५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter