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अनुभूति में बाबूराम शुक्ल की रचनाएँ-

गीतों में-
अंधड़ों के दौर
कैसे हो गुलमोहर सवेरा?
जहर आग
वक्त जालिम
क्षण अकेला

 

वक्‍त जालिम

हादसों ने इन दिनों,
कितना नहीं तोड़ा।

एक भर पाता न,
सौ-सौ घाव हो जाते।
क़त्‍लगाहों को भरो,
प्रस्‍ताव हो जाते।
गरदनों से छुरी ने,
रिश्‍ता नया जोड़ा।

तलफती संवेदना ज्‍यों
पर कटी चिडि़याँ
पी रहीं लोहू पिशाचिनि
ज़ुल्‍म की घडि़याँ
पीठ नंगी वक्‍त ज़ालिम
मारता कोड़ा।

९ मई २०११.

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