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इन बहारों से कोई पूछे

इन बहारों से कोई,  पूछे ये जाते हैं कहाँ।
रहते हैं किस ठौर, जब होते नहीं इनके निशाँ।
तितलियाँ उड़-उड़ बतातीं, फूल को खिलने का ढंग।
भ्रमर उसके उर में भरता,  तान देकर सूर्ख़ रंग।
नई-नई कोपलों से,  ढँक लिया तरु तन-बदन।
पवन बाँटे गंध मादक,  प्रकृति करती सबको दंग।
कौन आकर कान में,  कह जाता बहारों से मिलो
हैं क्षणिक,  पर कितने रंगों से भरे इनके रवाँ। 
रहते हैं किस ठौर. . .

पत्थरों  से  आज  पूछो, क्या नदी से उनका रिश्ता।
साथ उठकर चल दिए, बन सलिल का एक हिस्सा।
बिखर जाएँगें तटों पर,  बालुका-सा ढेर बनकर
जड रहे जडवत बनें,  मत करें चेतन का पीछा।
बात दुनियावी समझ में, क्यों नहीं आती सभी को
छोटी-छोटी ज़िंदगी,  पर घात सदियों के यहाँ।
रहते हैं किस ठौर. . .

देव नहीं देवत्व सज़ा दे,  मानवता के भूलों की।
इतिहासों में छिपकर बैठे, दानवता के शूलों की।
सदियों से नर मूक बना,  रचकर अपना ईश यहाँ
व्यथा भरी हैं सभी कहानी, रसिया बना रसूलों की।
बात सरल,  आसान नहीं, जीवन जी लेना जग में
उठी निगाहें बाँध रहीं,  तरह-तरह के जाल जहाँ।
रहते हैं किस ठौर. . .

1 जुलाई 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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