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अच्छा हुआ

बेशुमार लोगों के साथ
अंधा-धुंध दौड़ में
बस भागते जा रहे थे हम।
किसको गिराया, किसने उठाया
कहाँ से चले, कहाँ पहुँचे
कुछ याद नहीं।

वक्त के कितने मोड़ आए
उम्र के कितने पड़ाव पड़े
कितनी सच की दीवारें फाँदी
कितनी झूठ की ठोकरें खाईं
कुछ याद नहीं।

याद रहा केवल
घुटनों का,
चरमरा कर गिर जाना
सब का हमें लाँघ कर निकल जाना।

चलो अच्छा हुआ
दौड़ में पिछड़े तो क्या हुआ
सड़क तो दिखी
घुटने छिले
ज़मीन तो महसूस की।
मिट्टी में हाथ सने
घास की नरम छुअन
तो जान ली।

आँख उठाई तो
गगन की छाती में सिमटती
सूरज की लाली को देख लिया।
चाँद-तारों भरी रात को
सागर की गोद में,
धीमे-धीमे तिरते देख लिया।
वक्त की दौड़ में,
कहाँ देखा था यह सब
जो अब देख लिया।
चलो जो हुआ,
अच्छा हुआ।

24 सितंबर 2007

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