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अनुभूति में संध्या सिंह की रचनाएँ -

गीतों में-
अब कैसे कोई गीत बने
कौन पढ़ेगा
परंपरा
मन धरती सा दरक गया
रीते घट सम्बन्ध हुए

दोहों में-
सर्द सुबह

छंदमुक्त में-
अतीत का झरोखा
खोज
बबूल
संभावना

सीलन

 

संभावना

पहले--
हमारी बहस के शब्द
बेहद शालीन और स्पष्ट,
ऊबड़ खाबड रस्ते पर भी
संयमित
और कतारबद्ध
एक दूसरे के बीच से होते
क्रमानुक्रम -
पारी की बाट जोहते,
सफाई से बुन देते
करीने से गुँथी -
एक दुरंगी चटाई
मगर आज --
हमारी बहस के शब्द
एक दूसरे से त्रस्त
तीर कमान से युक्त
उच्च्रंख्ल और उन्मुक्त
ऊपर दिखने की होड़ में गुत्थमगुत्था
नतीजन-
एक बेतरतीब, उलझा
दो रंग के धागों का गुच्छा
मगर मुझे शब्दों को सुलझाना है
मौन के उजाले में
एक एक गाँठ खोल कर,
जगाना है -
सोये हुए बुनकर को
क्योकि -
मैं जानती हूँ
संभावनाएं अब भी प्रतीक्षारत हैं,
एक अवसर की
और अवसर भी ठहरा है,
देहरी पर बाहर
सुलझे धागों की बाट जोहता
ताकि बुन सके -
मेरे' इकलौते' जीवन की हर बात
सिर्फ तुम्हारे साथ

२७ फरवरी २०१२

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