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                     अनुभूति में
                    दीपक 
                    राज कुकरेजा की रचनाएँ- 
                    कविताओं में- 
                    एक पल में 
                    कविता 
                  
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कविता 
कलकल बहती नदी 
झरझर कर बहता झरना 
ऊँचे खड़े स्थिर पहाड़ 
धीमे-धीमे पत्ते हिलाते पेड़ 
बहती हुई सुहानी हवा 
अब आदमी को नहीं सुहाती 
पीं-पीं करती गाड़ियों की 
कर्णकटु प्रदूषित ध्वनि 
आँखों और फेफड़ों को 
दग्ध करता ईंधन का धुआँ 
शरीर को अप्राकृतिक करता  
एसी का मौसम 
यह कृत्रिम ज़िंदगी  
अब उसे भाती 
धुँधले दृश्य प्रस्तुत करती 
गाड़ियों की हैडलाइट 
आतंक से भी बढ़कर  
रास्ते में दुर्घटना का भय 
सड़कें अब सुहानेपन से  
दूर हो गईं 
जीवन है यह संतोष की 
बात नहीं 
मौत से बचे हैं अब तक 
यही बात सच रह गई 
जिस डाल पर बैठे हैं 
उसे ही काटते 
शिकायतें करते है उससे 
जो खुद अपराधी है 
जब आत्महत्या पर  
उतारू हो सब 
फिर भी बहुत लोग ज़िंदा हैं 
क्योंकि मौत की गागर भर गई   
09 फरवरी 2007 
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