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 नाटक के बाहर 
शाकुंतल के पन्नों से निकलती है शकुंतला मृच्छकटिकम 
से वसंतसेना दोनों नदी के तट पर  पेड़ की छाँह में बैठकर देर तक करती रहती 
हैं कालिदास और शूद्रक की बातें 
जाल डालकर वह मछेरी भी वहीं बैठा होता है लगभग जान 
ही ले डाली थी जिसकी राजा की अँगूठी ने और बाद में बमुश्किल छूट पाया था 
जो राजसेवकों से पान-फूल का शिष्टाचार निभाने के बाद दोनों बतियाती हैं 
देर तक पुरानी सखियों की तरह छेड़ती हैं यहाँ-वहाँ के किस्से शकुंतला बताती 
है कि किस तरह चौथे अंक के चौथे श्लोक ने सोने नहीं दिया था कालिदास को चार 
रातों तक 
वसंतसेना याद करती है कि कैसे सुनते रहे थे 
शूद्रक मिट्टी की गाड़ी की ध्वनि नाटक के समाप्त हो जाने के बाद भी इसके 
बाद शकुंतला कहती है बड़ी देर हो गई, चलती हूँ अब सातवें अंक के मरीचाश्रम से 
आई थी पर भारत को वहीं छोड़ लौटना होगा मुझे प्रथम अंक के कण्व आश्रम 
में जहाँ गौतमी मेरी प्रतीक्षा में होंगी ऋषि गए होंगे सोमतीर्थ और तपोवन 
में चले आ रहे होंगे राजपुरुष 
उधर वसंतसेना को खोजते आ जाता है शकार कहते हुए, 
तुम कहाँ थी अब तक मैंने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा यहाँ तक कि चारुदत्त 
के घर भी गया उसी ने बताया कि तुम यहीं कहीं होगी तब लौट गई शकुंतला आश्रम 
में और चली गई वसंतसेना शकार के साथ 
वह बूढ़ा मछेरा मगर लौटा नहीं नाटक में तजुर्बे से 
सीख चुका था वह अँगूठी यदि निकले मछली के पेट से तो भी दूर रहना चाहिए राजा 
के दरबार से! 
1 अप्रैल 2007 
            
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