| शब्द 
जो हमने बुने सिर्फ़ बहरों ने सुने
 यह अंधेरी घाटियोंकी चीख है
 मुट्ठियों में बंद
 केवल भीख है
 बस रूई की गाँठ
 जैसे हैं पड़े
 मन करे जिसका, धुने
 आँधियाँ सहता रहादिन का किला
 रात को हर बार
 सिंहासन मिला
 दें किसी सोनल किरन
 को दोष क्या
 जब अंधेरे ही चुने
 छोड़ते हैं साँपसड़कों पर ज़हर,
 देखते ही रह गए
 बौने नगर,
 थक चुके
 पुरुषार्थ के भावार्थ को
 कौन जो फिर से गुने।
 - रमेश गौतम |