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अभिव्यक्ति  

३०. ११. २००९

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शब्द जो हमने बुने

  शब्द जो हमने बुने
सिर्फ़ बहरों ने सुने

यह अंधेरी घाटियों
की चीख है
मुट्ठियों में बंद
केवल भीख है
बस रूई की गाँठ
जैसे हैं पड़े
मन करे जिसका, धुने

आँधियाँ सहता रहा
दिन का किला
रात को हर बार
सिंहासन मिला
दें किसी सोनल किरन
को दोष क्या
जब अंधेरे ही चुने

छोड़ते हैं साँप
सड़कों पर ज़हर,
देखते ही रह गए
बौने नगर,
थक चुके
पुरुषार्थ के भावार्थ को
कौन जो फिर से गुने।

- रमेश गौतम

इस सप्ताह

गीतों में-

अंजुमन में-

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पुनर्पाठ में-

पिछले सप्ताह
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गीतों में-
कुमार रवीन्द्र

अंजुमन में-
राजकुमार कृषक

विदेशी कविता में-
चेक गणराज्य से
ज़्देन्येक वाग्नेर

छंदमुक्त में-
अंबरीष श्रीवास्तव

पुनर्पाठ में-
निर्मला सिंह



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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
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