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अभिव्यक्ति  २१. ७. २००

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दिन डूबा

दिन डूबा
नावों के
सिमट गए पाल।

खिंच गई नभ में
धुएँ की लकीर
चढ़ गई तट पर
लहरों की पीर
डबडबाई
आँख-सा
सिहर गया ताल।

थककर रुक गई
बाट की ढलान,
गुमसुम सो गया
चूर-चूर गान
हिलते रहे
याद के
दूर तक रूमाल।

--रामेश्वर दयाल कांबोज हिमांशु

इस सप्ताह

गीतों में-
रामेश्वर दयाल कांबोज हिमांशु

अंजुमन में-
देवी नागरानी

क्षणिकाओं में-
आस्था

छंदमुक्त में-
ऋतु पल्लवी

नई हवा में-
दिव्य प्रकाश दुबे

पिछले सप्ताह
१४ जुलाई २००८ के अंक में

गौरवग्राम में-
धर्मवीर भारती

तेवरियों में-
ऋषभदेव शर्मा

छंदमुक्त में-
अरुणा राय

काव्य संगम में-
अलेक्सांदर पूश्किन की रूसी कविताएँ

हाइकु में-
रामकृष्ण विकलेश

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
-|- सहयोग : दीपिका जोशी
 
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