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२६. ५. २००८ 

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सुख दुख

मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख!

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन!

जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से!

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का!

सुमित्रानंदन पंत

इस सप्ताह

पुनर्पाठ में-
सुमित्रानंदन पंत

गीतों में-
रामेश्वर कांबोज हिमांशु

छंदमुक्त में-
सुधीर विद्यार्थी

अंजुमन में-
सतपाल ख्याल

दोहों में-
राम निवास मानव

पिछले सप्ताह
१९ मई २००८ के अंक में

पुनर्पाठ में-
प्रो. आदेश हरिशंकर

छंदमुक्त में-
रति सक्सेना

अंजुमन में-
ब्रजकिशोर शर्मा शैदी

काव्य संगम में-
डॉ. दुष्यंत की राजस्थानी कविताओं का हिन्दी रूपांतर

क्षणिकाओँ में-
राजीव रंजन प्रसाद

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