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७. ४. २००८ 

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यही सोच कर

यही सोचकर आज नहीं निकला -
गलियारे में
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में।

लहराते थे झील-ताल, पर्वत
हरियाते थे
हम हँसते थे झरना झरना हम
बतियाते थे
इन्द्रधनुष उतरा करता था
एक इशारे में।

छूती थी पुरवाई खिड़की, बिजली
छूती थी
झूला छूता था, झूले की कजली -
छूती थी
टीस गई बरसात भरी
पिछले पखवारे में।

जंगल में मौसम सोने का हिरना
लगता था
कितना अच्छा चाँद का नागा करना-
लगता था
मन चकोर का बसता है
अब भी अंगारे में।

--कैलाश गौतम

 

इस सप्ताह

इस माह के कवि में-

अंजुमन में-

दिशांतर में-

छंदमुक्त में-

हास्य व्यंग्य में-

पिछले सप्ताह
३१ मार्च २००८ के अंक मे

गौरव ग्राम में-
रामेश्वर शुक्ल अंचल

अंजुमन में-
प्रेमरंजन अनिमेष की लंबी ग़ज़ल

छंदमुक्त में-
अवतंस कुमार

पाठकनामा में-
दीपिका ओझल

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