हम तो मिट्टी थे
कुम्हार ने जैसा रूप दिया
बिना हिचकिचाहट के हमने
उसको खूब जिया।
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बीच कुएँ में लटके तैरे डूबे उतराए
फाँसी सहकर भी गहरे से पानी भर लाए
सबकी प्यास बुझे
इसके हित
क्या कुछ नहीं किया।
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चाहा जिसको सुख के दिन जैसी वह छूट गई
मूरत मिट्टी की थी कच्ची थी फिर टूट गई
इन उनकी साधें
भरते भरते
तन हवन किया।
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तुम-क्या-हो-तुम-क्या-जानो-हम-खुद-ना-जान-सके
इस असार संसार सार को ना पहचान सके
मिट्टी के रूपों
में खोए
मिट्टी जनम किया।
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- डॉ. वीरेन्द्र निर्झर