पत्र व्यवहार का पता

अभिव्यक्ति तुक-कोश 

१. १०. २०२४1

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हम तो मिट्टी थे

 

 

हम तो मिट्टी थे
कुम्हार ने जैसा रूप दिया
बिना हिचकिचाहट के हमने
उसको खूब जिया।
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बीच कुएँ में लटके तैरे डूबे उतराए
फाँसी सहकर भी गहरे से पानी भर लाए
सबकी प्यास बुझे
इसके हित
क्या कुछ नहीं किया।
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चाहा जिसको सुख के दिन जैसी वह छूट गई
मूरत मिट्टी की थी कच्ची थी फिर टूट गई
इन उनकी साधें
भरते भरते
तन हवन किया।
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तुम
-क्या-हो-तुम-क्या-जानो-हम-खुद-ना-जान-सके
इस असार संसार सार को ना पहचान सके
मिट्टी के रूपों
में खोए
मिट्टी जनम किया।
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- डॉ. वीरेन्द्र निर्झर
 

इस माह
(माटी विशेषांक में)

गीतों में-

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अनिता सुधीर आख्या

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अवनीश सिंह चौहान

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उमा प्रसाद लोधी

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ऋताशेखर मधु

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गिरीश पंकज

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जिज्ञासा सिंह

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पद्मा मिश्रा

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मधु शुक्ला

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मुकेश बोहरा अमन

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यमुना पाठक

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रमेश रंजक

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विश्वंभर शुक्ल

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वीरेन्द्र निर्झर

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शशि पाधा

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शिवमंगल सिंह सुमन

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शिवानंद सिंह सहयोगी

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शुभम श्रीवास्तव ओम

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सुरेन्द्र कुमार शर्मा

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सुरेन्द्रपाल वैद्य

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हरिहर झा

छंदमुक्त में-

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अनुपमा त्रिपाठी सुकृति

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मधु प्रधान

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मधु संधु

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मीनाक्षी धन्वंतरि

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मीरा ठाकुर

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संजय सुजय बासल

छंदों में-

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अलकेश त्यागी

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कल्पना मनोरमा

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कुँअर उदय सिंह अनुज

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मंजु गुप्ता

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विजय तिवारी 'किसलय'

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रेखा श्रीवास्तव

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श्रीधर आचार्य शील

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स्मृति गुप्ता

अंजुमन में-

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परमजीत कौर रीत

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रमा प्रवीर वर्मा

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रवि खण्डेलवाल

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