वात्सल्यमयी वसुधा का वासंती वैभव निहार
गगन प्यारा विस्मयविमुग्ध हो उठा।
धानी आँचल में छिपे रूप लावण्य को
आँखों में भरकर बेसुध हो उठा।
सकुचाई शरमाई पीले परिधान में
नवयौवना का तन मन जैसे खिल उठा।
गालों पर छाई रंग बिरंगे फूलों की आभा
माथे पर स्वेदकण हिम-हीरक-सा चमक उठा।
चंचल चपला-सी निकल गगन की बाँहों से
भागी तो रुनझुन पायल का स्वर झनक उठा।
दिशाएँ बहकीं मधुर संगीत की स्वरलहरी से
मदमस्त गगन का अट्टहास भी गूँज उठा।
महके वासंती यौवन का सुधा रस पीने को
आकुल व्याकुल प्यासा सागर भी मचल उठा।
चंदा भी निकला संग में लेके चमकते तारों को
रूप वासंती अंबर का नीली आभा से दमक उठा।
कैसे रोकूँ वसुधा के
जाते वासंती यौवन को
मृगतृष्णा-सा सपना सुहाना
सूरज का भी जाग उठा
पर बाँध न पाया रोक न पाया
कोई जाते यौवन को
फिर से आने का स्वर किंतु
दिशाओं में गूँज उठा
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