शाम रच गई
कच्ची अमियों वाली
एक उदासी
लगे झूलने
यादों की डालों में
नये टिकोरे
तोते जैसा मन
बैठा पकने की
राह अगोरे
कानाफूसी
लगी फैलने
बहती तेज़ हवा-सी
भीतर एक अलाव जला कर
गुमसुम बैठे रहना
कितना
भला-भला लगता है
अपने से कुछ कहना
काँप-काँप
उठती जल सतहें
मछली हुई पियासी
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