फूल फूल कर फूल रहे हैं
तन मन की सुधि भूल रहे हैं।
मस्त पवन झोंकों के झूले
हर्ष मग्न हो झूल रहे हैं।
उन पर लुटा रहे हैं सौरभ
जो इनके प्रतिकूल रहे हैं।
व्यर्थ व्यथादायक विवाद को
दे न तनिक भी तूल रहे हैं।
होता मन ना म्लान ज़रा भी
चुभ चाहे तन शूल रहे हैं।
झड़ कर मर मिटना कबूल पर
मुर्झाना न कबूल रहे हैं।
जिन्हें देख सब उठे खिलखिला
सुख सुगंध के मूल रहे हैं।
माली उनकी मुस्कानों का
अनुचित मूल्य वसूल रहे हैं
"बुद्धि" सुमन बन खिल न सके जो
जी क्यों यहाँ फ़िजूल रहे हैं
|