कभी कभी निर्मला वर्मा
कभी कभी अपना ही चेहरा अचानक ही कितना कोमल हो जाता है तरल हो उठती हैं आँखें अनायास ही चुप हँसी की एक किरन दूर दिगंत को सुरभित करती बिखर जाती है
तब वसंत बिलकुल अकेला होता है मुझमें
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