अकस्मात हो बैठा मेरा मन फागुनी
जाने क्या बात हुई।
क्षण भर में देह दंश
हो गए रसीले
खुशियों के हाथ हुए
एक साथ पीले
पवन के इशारे पर सौरभ की सेना लो
फिर से तैनात हुई।
निंदिया आती नहीं
कितनी है ढीठ अब
विरह गीत भाग रहे
दिखलाकर पीठ सब
डूब गए प्रश्न और संयम के नियमों की
बुरी तरह मात हुई।
मौसम की पाती को
लगातार बाँच कर
अघा नहीं पाता है
आज रूप नाच कर
फल गईं मनौतियाँ इच्छाओं की सरिता
पुन: जलप्रपात हुई।
|