वसंती हवा

बसंत
--अमरपाल सिंह

 

बस अंत करो इस सर्दी का, बसंत को अब आना है।
ऊनी वस्त्रों के अंबार को, लंबी छुट्टियों पर जाना है।

बस अंत करो छोटी रातों का, मेरे सूरज को अब आना है।
नन्हीं कलियों ने है खिलना, और भँवरों को भी गाना है।

बस अंत करो इस आलस का, अब खेलना और खिलाना है।
खिड़की दरवाज़े खोल सभी, स्वर्णिम किरणों को आना है।

बस अंत करो इस सन्नाटे का, चिड़ियों को अब चहचहाना है।
वो रात की रानी महकेगी, खेतों को भी जुत जाना है।

बस अंत करो इस अनभिज्ञता का, ऋतुएँ तो एक बहाना है।
कितने बसंत अब बीत गए, जीवन का कहाँ ठिकाना है?

बस अंत करो प्रतीक्षाओं का, बसंत को तो हर वर्ष आना है।
सुखी वही, समृद्ध वही, जिसने यह सच, सच में जाना है।

बस अंत करो, अब अंत करो, हर ऋतु का एक परवाना है।
तुम कर्म करो, बस कर्म करो, बसंत का रूप फिर, जानोगे और सुहाना है।

चलना है, मुझे चलते जाना है,
क्योंकि...यह तय है, बसंत को तो हर बार आना है।
बसंत ने तो हर बार आना है।

११ फरवरी २००८

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