न फुलझड़ी, न पटाखा, न रोशनी यारों
दिवाली अपनी रही खूब अनमनी यारों
अमीर लोग मिले धन का दिखावा करते
एक भी शख्स न था बात का धनी यारों
किसी को ताश मिलाते हुए बरसों गुज़रे
किसी के हाथ में बाजी मिली बनी यारों
आदमी और अकेला हुआ ज़माने में
बस्तियाँ और बसी जाती हैं घनी यारों
हमने बुझने न दिया दर्द का दिया दिल में
हमने कर रक्खी अमावस में चाँदनी यारों
वीरेंद्र जैन
1 नवंबर 2007
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