सब ओर ही दीपों का बसेरा देखा,
घनघोर अमावस में सवेरा देखा।
जब डाली अकस्मात नज़र नीचे को,
हर दीप तले मैंने अँधेरा देखा।।
तुम दीप का त्यौहार मनाया करते,
तुम हर्ष से फूले न समाया करते।
क्या उन्हें भी देखा है इसी अवसर पर,
जो दीप नहीं, दिल हैं जलाया करते।।
हम घर को दीपों से सजा लेते हैं,
इतना भी न अनुमान लगा लेते हैं।
इस देश में कितने ही अभागे हैं, जो
घर फूँक के दीवाली मना लेते हैं।।
इक दृष्टि बुझे दीप पे जो डाली थी,
कुछ भस्म पतंगों की पड़ी काली थी।
पूछा जो किसी से तो वह हँस कर बोला,
मालूम नहीं? रात को दीवाली थी।।
कैसा प्रकाश पर्व है यह दीवाली?
जलते हैं दिये रात मगर है काली।
तुम देश के लोगों की दशा मत पूछो,
उजला है वेष जेब मगर है खाली।।
हे लक्ष्मी! तुम्हें माँ हैं पुकारा करते,
तुमको हैं सभी पुत्र रिझाया करते।
पर प्यार धनी से है न निर्धन से तुम्हें,
ये भेद नहीं माँ को सुहाया करते।।
दीवाली में हर्षित हैं सभी हलवाई,
फुलझड़ियों पटाखों से हवा गरमाई।
बच्चों की माँग पूरी करेंगे कैसे?
मुँह बाये खड़ी शहर में है महँगाई।।
कुछ यों प्रकाश पर्व मना कर देखें,
अज्ञान-तमस को भी मिटा कर देखो।
माटी के सदा दिये जलाने वालों,
मन के भी कभी दिये जलाकर देखो।।
-उदयभानु हंस
16 अक्तूबर 2006
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