यह ज़िन्दगी का
कारवाँ, इस तरह चलता रहे
हर देहरी पर अँधेरों में दिया जलता रहे
आदमी है आदमी तब ,जब
अँधेरों से लड़े
रोशनी बनकर सदा ,सुनसान पथ पर भी बढ़े
भोर मन की हारती कब,
घोर काली रात से
न आस्था के दीप डरते, आँधियों के घात से
मंज़िलें उसको
मिलेंगी जो निराशा से लड़े
चाँद- सूरज की तरह, उगता रहे ढलता रहे
जब हम आगे बढ़ेंगे,
आस की बाती जलाकर
तारों भरा आसमाँ, उतर आएगा धरा पर
आँख में आँसू नहीं
होंगे किसी भी द्वार के
और आँगन में खिलेंगे, सुमन ममता प्यार के
वैर के विद्वेष के
कभी शूल पथ में न उगें
धरा से आकाश तक बस प्यार ही पलता रहे
रामेश्वर दयाल कांबोज हिमांशु
9 नवंबर 2007