दीप जलाते रहे अनगिनत
फिर क्यों अँधियारा हँसता है
माटी के सोने-चाँदी के
दीपों में घृत-तेल भरा था
और वर्तिका डुबो उसी में
अग्नि पुंज स्पर्श धरा था
किंतु भुला बैठे थे हम यह
दीपक तले तिमिर बसता है।
फिर क्यों अँधियारा हँसता है।।
दीप जलाए थे जो भी सब
केवल तन की अभिलाषा थी
दीप शिखा में नहीं कहीं भी
दीपित मन की सद-आशा थी
इसीलिए दिन-रात जगत पर
अँधकार पंजा कसता है।
फिर क्यों अँधियारा हँसता है।।
दीप और अँधियार लड़े जब
अँधकार ने यह पहचाना
दीप जलाकर भस्म करेगा
मुश्किल है मेरा बच पाना
दीपक की छाया बन बैठा
मान दीप का ही ग्रसता है।
फिर क्यों अँधियारा हँसता है।।
-निशेष जार
1 नवंबर 2006
|