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शुभ दीपावली

अनुभूति पर दीपावली कविताओं की तीसरा संग्रह
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आज न अब तुम दीप जलाओ

आज न अब तुम दीप जलाओ, अंधियारा अच्छा लगता है,
क्योंकि दीप के जल जाने पर शलभ न जीवित रह पाएगा।
माना दीपक की ज्योति में,
अँधियारा हँसने लगता है।
ज्यों रवि शशि की वैतरणी में,
यह संसार निखर उठता है।
किंतु किसी के पंख सुनहरे झुलस-झुलस कर गिर पड़ते हैं,
बाती के जलते अधरों से प्यासा शलभ लिपट जाएगा।

कुछ हँस-हँस कर पथ पर बढ़ते,
कुछ रोने को रह जाते हैं।
व्यथा कथा में मोह पल रहा,
विश्वासों पर लुट जाते हैं।
अभी विंधा है भ्रमर कली से अभी साँझ की किरन न सिमटो,
क्योंकि तुम्हारे लुट जाने पर बंदी भँवरा बिंध जाएगा।

अनुपम इंद्रधनुष जब खिलता,
तब घनघोर घटा घिरती है।
चित्र अधूरे ही रह जाते,
बिजली तड़प-तड़प गिरती हैं।
अरे चाँद की दुलहिन देखो यों बदली में छुपी हुई है।
क्योंकि रूप के खुल जाने पर आकर्षण ही मिट जाएगा।।

-मदनमोहन 'उपेंद्र'
16 अक्तूबर 2006

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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