खुद जल
करके रजनी भर
भोर तक झेली जलन
रात-दिन करते रहे जो
घोर तम का आचमन।
इस धरा के इस गगन के
उन उजालों को नमन!
अपने लिए तो सब
जिए
ये कीट भी, इंसान भी,
पोंछते गीले नयन कुछ
बाँटते मुस्कान भी।
आज धरती पर
उन्हीं के
फूल-से खिलते वचन।
हम उजाले सीख पाए
कब भला यों हार जाना,
हमने सीखा है हमेशा
घोर तम के पार जाना।
जगमग हमारी लौ से
है
ये धरा और ये गगन।
रामेश्वर दयाल कांबोज हिमांशु
२७
अक्तूबर २००८