अब न जाने खील-सा खिलता नहीं क्यों मन!
गाँव का वह नीम टेढ़ा
याद आता है
पेड़ पीपल का अभी भी
छटपटाता है
बाग में चलते रहँट का
स्वर अनोखा-सा
खो गया जाने कहाँ
पर झनझनाता है।
रोशनी की फिर नुमायश
हो रही घर द्वार सबके
पर न जाने क्यों नहीं मन से गई भटकन।
अब न जाने खील-सा खिलता नहीं क्यों मन!
माँ बताशा खील दीपक
घर सभी के भेजती थी
वह अमिट दौलत
अभी तक खर्च करता आ रहा हूँ
रोशनी तो कैद कर ली है
हक़ीक़त है मगर यह
इस शहर की भीड़ में
अब तक सदा तनहा रहा हूँ।
ज्योति का यह पर्व
मन को गुदगुदा पाता नहीं है
प्रश्न रह रह उठ रहा है कौन-सा कारन!
अब न जाने खील-सा खिलता नहीं क्यों मन!
हम समय की बाँह थामे
चल रहे बस चल रहे हैं
ठीकरों की होड़ में हम
मनुजता को छल रहे हैं
भेड़ियों की भीड़
बस्ती में पनपती जा रही फिर
संदली वन आस्थाओं के
निरंतर जल रहे हैं।
है समय का फेर
या अँधेर चाहे जो समझ लो
नाश होता है हमेशा वक्त का रावन!
अब न जाने खील-सा खिलता नहीं क्यों मन!
-डॉ. जगदीश व्योम
1 नवंबर 2007
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