भारी बहुत
अँधेरे की ज़िद पे
एक अकेला
औरों के लिए
हँस हँस के मिटा
माटी का दिया
- शैल अग्रवाल
मन का दिया
साहस कर जिया
जलता रहा
आँधी से जीता
नेह तरल पीता
पलता रहा
- पूर्णिमा वर्मन
दिये है हम
प्रज्वलित हवा में
जिए हैं हम
- डॉ. राजकुमारी शर्मा 'राज'
धरे के धरे
रह गए ठगे से
आले-दिवाले।
छाया अँधेरा
धुँधियाये कंदील
सहमे हुए।
-डॉ मनोहर अभय
घट जाएगा
तम का ये पसारा
दीप हुँकारा।
सदा से बैर
अँधकार का सिर
दिए के पैर।
-डॉ. जगदीश व्योम
दीप की बाती
रोशनी बाँटती है
जलकर भी।
-डॉ करुणेश प्रकाश भट्ट
रात अँधेरी
नन्हे-नन्हें दीपक
ज्योति जलाते
-सूर्यदेव पाठक पराग
दीप गुर्राया
अँधकार का जिन्न
रुक न पाया।
-प्रत्यूष यादव
16 अक्तूबर 2006
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