बाँध रोशनी की गठरी
फिर आई दीवाली।।
पूरी रात चले हम
लेकिन मंज़िल नहीं मिली
लौट-फेर आ गए वहीं
पगडंडी थी नकली
सफर गाँव का और
अँधेरे की चादर काली।
बाँध रोशनी की गठरी
फिर आई दीवाली।।
ताल ठोंक कर तम के दानव
कितने खड़े हुए
नन्हें दीप जुटाकर साहस
कब से अड़े हुए
हवा, समय का फेर समझकर
बजा रही ताली।
बाँध रोशनी की गठरी
फिर आई दीवाली।।
लक्ष्य हेतु जो चला कारवाँ
कितने भेद हुए
रामराज की बातें सुन-सुन
बाल सफ़ेद हुए
ज्वार ज्योति का उठे
प्रतीक्षा दिग-दिगंत वाली।
बाँध रोशनी की गठरी
फिर आई दीवाली।।
लड़ते-लड़ते दीप अगर
तम से, थक जाएगा
जुगुनू है तैयार, अँधेरे से
भिड़ जाएगा
विहंसा व्योम देख दीपक की
अद्भुत रख वाली।
बाँध रोशनी की गठरी
फिर आई दीवाली।।
-डॉ. जगदीश व्योम
16 अक्तूबर 2006
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