हँसी फुलझड़ी सी महलों में
दीवाली की रात
कुटिया रोई सिसक-सिसक कर
दीवाली की रात।
कैसे कह दें बीत गया युग
ये है बात पुरानी
मर्यादा की लुटी द्रौपदी
दीवाली की रात।
घर के कुछ लोगों ने मिलकर
खूब मनाई खुशियाँ
शेष जनों से दूर बहुत थी
दीवाली की रात।
जुआ खेलता रहा बैठकर
वह घर के तलघर में
रहे सिसकते चूल्हा चक्की
दीवाली की रात।
भोला बचपन भूल गया था
क्रूर काल का दंशन
फिर फिर याद दिला जाती है
दीवाली की रात।
तम के ठेकेदार जेब में
सूरज को बैठाए
कैद हो गई चंद घरों में
दीवाली की रात।
एक दिया माटी का पूरी
ताकत से हुँकारा
जल कर जगमग कर देंगे हम
दीवाली की रात।
-डॉ. जगदीश व्योम
1 नवंबर 2006
|