लाखों दीप जलाए लेकिन,
अँधकार न भागा,
लाखों बार यह माथा रगड़ा,
पगला मन न जागा।
लाखों भजन सुने सुनाए,
पर दिलको न भाए,
लाखों यत्न किए पर फिर भी,
राम नहीं बन पाए।
लाखों रावण फूँके लेकिन,
रावण न जल पाया,
लाखों मेघदूत मारे पर,
बार-बार वह आया।
लाखों ग़म और आँसू पीए,
पर पीना न आया,
लाखों बार मरे और जन्मे,
पर जीना न आया।
लाखों तीर्थ नहाए लेकिन,
पावन हो न पाए,
लाखों दान दिए पर फिर भी,
कर्ण नहीं बन पाए।
लाखों दीपक देखे उनके,
ऊपर का उजियारा देखा,
लाखों दीपक देखे उनके,
नीचे बस अँधियारा देखा।
लाखों बार दीवाली देखी,
उसका आना जाना देखा।
लाखों बार यह शोर शराबा,
मनका ही बहलाना देखा।
-अशोक कुमार वशिष्ठ
1 नवंबर 2006
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