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दीपावली महोत्सव
२००४
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न मैं राम ही बन पाया,
न मैं लक्ष्मण ही हो पाया,
न किसी कैकयी ने था मुझे बनवास भेजा,
न किसी दशरथ ने था अपना वचन निभाया,
न किसी शबरी का किया उद्धार मैंने,
न किसी केवट को मैंने पार लगाया,
न किसी हनुमंत की पाई भक्ति मैंने,
न किसी विभीषण का ही भेद मैंने पाया,
न जीती कोई लंका मैंने,
न ही किसी रावण को मैंने हराया,
पर मां ने हमेशा दीये खुशी के जलाए
जब–जब भी मैं घर लौट के आया
घूमा सारा जग मैं
लेकिन
माँ की ममता का मैंने
कोई भी सानी न पाया।
फिर से त्यौहार दीवाली आया,
खुशियां लाया, खुशियां लाया।
—मोहित कटारिया
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स्नेह भरे दीप जलें
स्नेह भरे दीप जलें
हल्दी अक्षत, थाल आरती
स्नेह सौख्य की मधुर भारती
द्वार द्वार पर तोरण लटके
हर चौखट चौबारा चमके
जगमग प्रकाश पले
घन तम मिटे निराशा का
हो संचार नव आशा का
हर कोने आंगन में
तारों के प्रांगण में
बिछड़े जन आज मिलें
— संध्या
दीये
पानी पीने
पानी में ज़रा उतरे दीये
दीये का पानी तो देखो
दीये पानी पीते देखो
दीये पानी पानी देखो
पानी होकर पसरे दीये!
पानी के दीये जगमगाते
पानी में छूटे चमचमाते
पानी में थोडे डिग जाते
पानी बाहर निकले दीये!
दीये गीले गीले देखो
पानी झलझल झलझल देखो
पानी में झलझलाहट देखो
पानी रिमझिम, चलते दीये
पानी पीने
पानी में ज़रा उतरे दीये!
— चन्द्रकान्त टोपीवाला
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