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दीप-दीप जलते देखा
घर-आँगन सीढ़ी-दालन
पग-पग जगमग
एक गरीब थक कर
चूर-चूर लगभग
उसके अश्रु-धार में
बिंबित दीपों से,
एक अरुण को उगते देखा
दीप-दीप जलते देखा
"मैं जाऊँगा छत पर
तुम जाओ आँगन में . . ."
दीप सजाने की खिंचातानी में
बाल-द्वंद्व छिड़ते देखा
दीप-दीप जलते देखा
जिस घर में
तम ही तम था
बरसों से,
विलग बेरंग पतझड़ सा
था दूर जीवन-रसों से,
उस घास-फूस के
झोपड़ को
एक महल-सा
स्वर्णिम किरणों से
झिमिर-झिमिर
झलते देका
दीप-दीप जलते देखा
एक-एक कण
माँ धरती का,
ओज़-ओज़ से
ओत-प्रोत
. . .और
पराजित तम के राजा को
हाथों को मलते देखा
दीप-दीप जलते देखा
दीप-दीप से
शोभित-प्रदीप्त नगर के
अवलोकन का अभिनय करते
अपने-अपने मुँडेरों पर
प्रेमासक्त प्रेमी नयनों में
एक स्वप्न को पलते देखा
दीप-दीप जलते देखा
बिरहन टुक-टुक
नयन लगाए
अश्रु धर से
रत्नेश बनाए
पिया बरसों से घर ना आए
पिया के आने पर
आस भरे नयनों में
विरह-व्यथा घुलते देखा
दीप-दीप जलते देखा
—अशुतोष कुमार सिंह |