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दीपावली महोत्सव
२००४
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इस दुग्ध दीप की आवलि में, जब उड़ रहे परिंदे टीलों
पर,
जब ज्वलित हुआ हर आँगन घर का, जब अंधकार पे हुआ असर,
जब आना था पुरुषोत्तम को, तब आया जब वह साँझ पहर,
जब आफ़ताब भी धूमिल लगते, कि जब आसमान पर गई नज़र।
पर गई नहीं आवलि हर द्वारे, ऐसे थे घर फिर भी रविवर,
जहाँ दीप नहीं दिल जले थे खाली, जहाँ आसूं बहते थे अक्सर,
था अंधकार हर आँगन में, कि एक दीप से ही बस जला था घर,
कहीं रोटी भी मिलनी थी मुश्किल, सो गए थे कुछ मुखड़े थक कर।
जलूं कहीं इक ज्वाला के सम, या जलूं कहीं उस दीप के जैसा,
है अंधकार या रोशन ये घर, त्योहार क्या होगा दीपों जैसा,
अब इस मंगल दीप दीवाली पे, यह अर्धसत्य है प्रश्न खड़ा,
मैं हँस दूँ तेरी रचना पे या, अब मैं भी थोड़ा रोऊँ जरा . . .
—शैलाभ शुभिशाम |
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इस बार दिवाली पर मित्रों
इक ऐसा दीप जलाएगे
धरती के कण–कण से हम
अज्ञान का तमस मिटाएँगे
सत्य अहिंसा की बाती से
प्रेम का दीप जलाएँगें
मन के हर कोने से हम
सारे मतभेद मिटाएँगे
दया, धर्म की लौ से
मानवता का दीप जलाएँगे
सदाचार, सद्कर्म का मित्रों
हम सब संकल्प उठाएँगे
—दीपा जोशी
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एक दीपक
एक दीपक
लड़ता हुआ
तम से,
हर पल
बाती–बाती जल–जल
पीता हुआ, अधरों से
तम का हलाहल
एक दीपक
खाता हुआ
पवन–झपेड़े
उलझा हुआ
तूफान में जहाज सा
डूबता–उभरता हुआ
प्राण भरता अपनी लौ मैं
पल–पल
एक दीपक
जलता हुआ चुपचाप
एक कोने में
पढ़ता–लिखता
पाठ रटता एक बालक
पीले प्रकाश में
साँस रोके पढ़ता अपनी लौ से
नहीं करता हलचल
एक दीपक
बुझता हुआ
गृहणी अपनी पल्लू से
निर्विरोध, चुपचाप
महीने के संचय में
नहीं करता है खलबल
एक दीपक
इन सभी दीपकों से
मिल कर बना हुआ
कई लौ लेकर जलता हुआ
मेरी आँखों में
बिंबित होता हुआ
निराशाओं को जलाता हुआ
मेरे स्वप्नों को करता है झिलमिल।
—आशुतोष कुमार सिंह |