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दीपावली महोत्सव
२००४

दिये जलाओ
संकलन

दीपों की ज्योति कहे

  दीपों की ज्योति कहेÊ तम से पुकार के।
मिल बैठें हम दोनोंÊ चार घड़ी प्यार से।।

जल–थल में अम्बर मेंÊ तम तेरा राज हैÊ
पूजता मगर मन सेÊ मुझको समाज हैÊ
आदि–अंत हैं दोनोंÊ संसृति अपार के।।
मिल बैठें हम दोनोंÊ चार घड़ी प्यार से।।

सातों ही लोकों मेंÊ तुम घूम आओÊ
मानव के मन से पर दूर चले जाओÊ
गाओ मत वसुधा पेÊ गीत संहार के।।
मिल बैठें हम दोनोंÊ चार घड़ी प्यार से।।È

जन–जन के जीवन मेंÊ आए खुशहालीÊ
हर उर में हर्ष लिएÊ आए दीवालीÊ
गूँज उठें धरती पेÊ गीत मधुर प्यार के।।
मिल बैठें हम दोनोंÊ चार घड़ी प्यार से।।

—प्रो। हरि शंकर आदेश

दिये जलाओ
संकलन

ऐसा दीप जलाओ

ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ तनमन रौशन कर दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ जीवन रौशन कर दे।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ सबकी भूख मिटा दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ सबकी प्यास बुझा दे।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ सबको सुख दे जाए‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ सबके दुःख ले जाए।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ सबमें प्रेम जगा दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ सबकी घृणा भगा दे।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ जग को सुंदर कर दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ जग को मंदिर कर दे।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ धरती स्वर्ग बना दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ जग से नर्क भगा दे।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ राम को फिर ले आए‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ रावण को खा जाए।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ जगमें धर्म को भर दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ कलि को सतयुग कर दे।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ सच का ज्ञान करा दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ अमृत पान करा दे।
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ आत्मा से मिलवा दे‚
ऐसा दीप जलाओ जो कि‚ प्रभु के दरस करा दे।

—अशोक कुमार वशिष्ठ

ऐसी दीवाली

ऐसी दीवाली चाहिए
जहाँ दिल नहीं प्रेम के दिये जलें

ऐसी दीवाली चाहिए
जहाँ साम्प्रदायिकता के बम न फूटें
प्रेम की फुलझड़ियाँ छूटें

ऐसी दीवाली चाहिए
जहाँ रात काली नहीं उजियाली हो

ऐसी दीवाली चाहिए
जहाँ लक्ष्मी तो हो काली न हो
—माधवी गुप्ता

प्रज्वलित थे दीप

प्रज्वलित थे दीप
प्रज्वलित थे दीप
तम कुछ हिचकिचाकर
इक अंधेरी झोपड़ी में छिप गया।

प्रज्वलित थे दीप
इक पल यों लगा
दम अँधेरे का घुट गया।

हुई आखिर
सत्य की ही जीत
धीरज बंधा, उत्सव मना।

प्रज्वलित थे दीप
लेकिन उन दियों में तेल कम था
अँधेरे में बड़ा दम था

रात आई
दीप की लौ डगमगाई
बुझ गई जागा अँधेरा।

सत्य की ही जीत?
सोचता हूँ झूठ निकला
यह नियम भी

नियम था?
या कहूँ आदर्श था
परिकल्पना थी।

खैर छोड़ो
चल गया मुझको पता
यह सत्य

या फिर यों ही कह लो
हुई आखिर
सत्य की ही जीत
प्रज्वलित थे दीप

—कमलेश पांडे 'शजर'

    

 

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