|
दीपावली महोत्सव
२००४
|
|
|
|
तुम ज़रा–सा साथ दो तो
चार डग मैं भी चलूँ
हर अँधेरे से लडूं मैं
एक दीपक–सा जलूँ।।
मैं बनूँ साहस सभी का
अब न हारे मन किसी का
अब न कोई ख़ौफ खाए
अब न उजड़े दिल किसी का
प्यार बनकर ही रहूँ मैं
प्यार बनकर ही पलूँ,
तुम ज़रा–सा साथ दो तो
चार डग मैं भी चलूँ
बस चमककर ही बुझूँ
चाह ऐसी भी नहीं है,
खोज लूं आसान–सी वह
राह ऐसी भी नहीं है,
यदि पड़े ढलना मुझे तो
सूर्य–सा ही मैं ढलूँ,
तुम ज़रा–सा साथ दो तो
चार डग मैं भी चलूँ
मैं जवानी की निशानी
मैं जवानों की जवानी
स्नेह जिसकी भूख बनकर
माँगता है आग–पानी,
जग चलेगा राह मेरी
राह जिस पर मैं चलूँ
हर अँधेरे से लडूँ मैं
एक दीपक–सा जलूँ।
— कृष्ण बिहारी |
|
|
मैं दीया हूँ
मैं दीया हूँ –
मिट्टी से बना, लघुकाय दीया
दिनभर सूरज लड़ता है
और शाम को थक,
बागड़ोर मुझे सौंप जाता है –
अंधकार से लड़ाई की
मैं जल उठा हूँ
अपने लौ–लष्कर
के साथ जुटता हूँ
एक हारी हुई लड़ाई
फिर लड़ने को
अपनी ऊष्मा से
फिर तपने को,
ज्योति जितनी भी बढ़े
तम ही शेष रहता है,
जल कर मर जाए भले
लौ पर, पर, पतंगा उड़ता है
पर मैं उस मृत्यु के लिए नहीं
क्षणिक उन्माद के लिए जी रहा हूँ
उस अजेय अंधकार के लिए नहीं
अपने हिस्से के
प्रकाश के लिए जल रहा हूँ
अपने आसपास की रोशनी को
देख जल रहा हूँ
इसलिए बुझा नहीं,
आज भी जल रहा हूँ
आज भी जल रहा हूँ
—विवेक ठाकुर
दीवाली
दीवाली की रात
हर घर आँगन दीया जले
उसने जो घर आँगन दिया वो न जले
दीया जले दिल न जले
यों हीं न जिंदगानी चले
दीवाली की रात सब से मिलो
चाहे दूर बसे हो कई मीलों
शब्दों से उन्हें आज सब दो
न जाने फिर कब दो
दुआ दी
दुआ ली
यही है दीवाली
—राहुल उपाध्याय
|