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दीपावली महोत्सव
२००४

दिये जलाओ
संकलन

दीप शिखा सी जगे चेतना

  कार्तिक स्नान का महीना
शरद की भोर के धुँधलके में
आँगन में चौक पूरती
शरद की जावा कुसुम सी ही काया
भीगी भीगी कार्तिकी ओस जैसे ही
भीने उभरते स्वर–
"उठो मेरे हरिजू बड़े भिनसारे
गइयन के बँध खोलो संकारे"
चौक में सजे पूजा के दीप
दीप शिखा सी
जगे चेतना
मिट्टी के
दीपक से उठ कर।

दिवाली की काली अमावसी रात
पुँछी हुई माँग सा चाँद गायब है
कार्तिकी बयार में ठंड
अनचाहे पाहुने सी घुस आई है
पेड़ों से गिरते सूखे पत्ते
हवा में झर झर कर
इधर से उधर डोलते हैं
आलों में सजे छोटे छोटे दीये
लड़ियों से झिलमिलाते हैं
तेज हवा से बुझते दीयों को
दौड़ दौड़ कर बचाते हुए
दीये की लौ हुआ आनन
दीप शिखा सी
जगे चेतना
मिट्टी के
दीपक से उठ कर।

—डा. राम गुप्ता

आओ फिर एक दीप जलाएँM

आओ फिर एक दीप जलाएँ।
हर दिल में हम प्यार जगाएँ।
हर पल उठते अँधियारे को
दीप लौ से दूर हटाएँ।

आपस में सौहार्द्र जगाएँ।
और जगाएँ संवेदनाएँ।
चाहत को अपना धर्म बनाएँ।
आओ फिर एक दीप जलाएँ।

हर घर में हर आँगन में
हर दिल में हर प्रांगण में
खुशियों की लड़ियाँ सजाएँ।
आओ फिर एक दीप जलाएँ।

हर छत और चौबारे को।
हर मंजिल मीनारे को।
दीपों की माला पहनाएँ।
आओ फिर एक दीप जलाएँ।

अमावस के अँधेरे को
जगमग पूनम की रात बनाएँ।
आओ फिर एक दीप जलाएँ।

— गौरव ग्रोवर

दीप

निराशा के तम को चीर कर
आशा का दीप जला दो
मन मंदिर में फिर से
ज्योति कलश सजा दो

विरह वेदना का संताप
नयनों में बसी मिलन की प्यास
प्रणय की नव विभा में
मिलन दीप जला दो

हो रहा जीवन तिल–तिल राख
मन में लिए मिलन की आस
उज्जवल, आलौकिक फिर से
नव–जीवन दीप जला दो

— दीपा जोशी

    

 

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