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दीपावली महोत्सव
२००४
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दीवाली आई
फिर कुछ खुशियाँ लेकर,
लेकिन उससे ज्यादा यादें लेकर
बचपन में चाहिए थे
ढेर सारे पटाखे और मिठाई
बस
पर मिलते थे
थोड़े पटाखे
और ढेर सी नसीहतें
पटाखे महंगे हैं,
पैसे नहीं हैं, उसके लिए
बेटाॐ
पैसे की कीमत समझा करो।
बचपन की नसीहत संकल्प बन गई
बड़ा होकर कमाऊँगा खूब पटाखे चलाऊँगा।
बचपन से किशोरावस्था,
और फिर जवानी
हर समय —
बिता दिया होस्टल के कमरे में
उसी संकल्प के साथ
फिर आई दीवाली
एक छोटी सी नौकरी लेकर
ठीक सात दिन पहले
तनख्.वाह मिली पहली
लेकिन आश्चर्यॐ
पटाखे चलाने का मन किया ही नहीं
शायद मेरा संकल्प
साल दर साल कमजोर पड़ता गया
और
उसी अनुपात में मजबूत करता गया
नसीहत बचपन की
समझता गया पैसे की कीमत।
सच में
वक्त बहुत कुछ समझा देता है
अब शायद
मैं भी अपने बेटे को
वही नसीहत दूँगा
दीवाली पर
जो मेरे बाप ने मुझे दी थी
मगर कोशिश रहेगी
वो कोई संकल्प ना करे मेरी तरह,
नसीहत के बदले
दीवाली के दिन।
—डॉ आशुतोष कुमार सिंह |
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राम दीप जलाएँ
एक कमरा
पूरा अँधेरा
नगर में हलचल
खुशी और उल्लास का डेरा
वह सोचती
अँधेरे में
क्या भूल गए होंगे राम
इस कैकेयी का नाम?
आँखों से अश्रु
होते विसर्जित
और फिर वह सोचती
"मैंने वनवासी किया राम को
पति–पुत्र दोनों से हुई त्यक्त
क्या कर सकूंगी अपने राम से
अपनी क्षमा अर्चना व्यक्त?"
"नहीं मैं अभागिन
दाग हूँ ममता के नाम पर
मैं कैसे आशा करूँ
राम करेंगे दया अपनी सौतेली माँ पर"
ह्यतब तक आ चुका था पुष्पक विमान
हर तरफ हर्ष ध्वनि जयकार
राम उतरे
हर्षातिरेक में
कौशल्या और सुमित्रा ने हृदय लगाया
माथे रोली–अक्षत–चंदन लगाया
कुछ कमी थी स्वागत के अभिषेक में
तभी राम को याद आया
"कहाँ हैं मेरी छोटी माँ?"
नंगे पांव धाए
"छोटी माँ का कक्ष
ऐसा क्यों?"
थोड़े व्यथित, थोड़े अकुलाए
अपने हाथों से दीये जलाए
कैकई के अश्रु
किरणों से झिलमिलाए
माँ की चरण राज
माथे पर लगाए
राम ने माँ से कहा,
"माता आओ दीप जलाएँ,
बहुत अँधेरा है यहाँ...
इसको दूर भगाएँ
आज भी कुछ कमरे
रह जाते हैं अँधेरे
रात ही बस रात बसती
दूर रहते हैं सवेरे
आओ हम भी दीप जलाए
तम को ऐसे दूर भगाएँ
की हर मनुष्य राम बन जाए
और हर एक राम दीप जलाए...
—आशुतोष कुमार सिंह
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